आँखों में चुभती रह-रहकर
कील अँधेरे की।
दिन डूबा,
छिलका उतरा है आज का
श्वेत दुखों का
पखवाड़ा यह प्याज का
फिर मुँडेर पर आ बैठी है
चील अँधेरे की।
जलपोतों के भीतर
बाहर मौन है
निर्देशक
इस सन्नाटे का कौन है
प्रश्न कर रही मूक तटों से
झील अँधेरे की।
संबंधों के
शीशे चकनाचूर हैं
नहीं बजेंगे,
हम टूटे संतूर हैं
छायाएँ आवाजों पर
अश्लील अँधेरे की।